रविवार, 13 जून 2010

किश्त छह

मीसा बंदियों को  नये वर्ष की सौगात 
सिवनी जेल, 25-1-1976
रायपुर सेंट्रल जेल में मीसा बंदियों पर नए वर्ष की सौगात के रुप में 1-1-1976 की शाम 6 बजे लाठी चार्ज किया गया। जिसमें लगभग 70 लोग जख्मी हो गए तथा 30 के हाथ पैर टूटे। जेल के भीतर मीसा बंदियों के हर बैरक में घुसकर उन्हें अंधाधुंध मारा गया 8 बजे जब सबकी मलहम पट्टी हो रही थी तब सुप्रीटेंडेंट जेल, अस्पताल आये पर उन्होंने न मरीजों का हाल- चाल पूछा न लोगों से कोई बात की। मेरे यह कहने पर भी कि बैरकों में तथा अस्पताल के अंदर भी खून खराबा, तोडफ़ोड़, लूटपाट, आगजनी की गी उसे भी देखने से इंकार कर दिया और वहां से चले गये। इस लाठी चार्च की अदालती जांच के लिए लिखा गया, लेकिन डिप्टी कलेक्टर ने झूठ लिख दिया कि मीसा बंदी आपस में ही लड़ पड़े थे। दरअसल जेल अधिकारियों ने मीसा बंदियों से बदला लेने के लिए यह लाठी चार्ज किया था ताकि वे भविष्य में जेल अधिकारियों के विरूद्ध किसी तरह की शिकायत न कर सकें। मीसा बंदी पिछले छह माह से जेल अधिकारियों द्वारा किए जा रहे भ्रष्टïाचार, घूसखोरी आदि की शिकायत कर रहे थे- कि वे मीसा बंदियों के स्वास्थ्य की जरा भी परवाह नहीं करते , समय पर दवाई नहीं देते, डी.के. अस्पताल के एक्सपर्टस् जब मीसा बंदी मरीजों को अस्पताल लाने कहते हैं तब भी वे उन्हें अस्पताल नहीं भेजते।
इस लाठी चार्ज के बाद मुझे इस बात का अंदाजा हो गया था कि मैं अब रायपुर जेल में ज्यादा दिनों तक नहीं रखा जाऊंगा। क्योंकि मैं जेल अधिकारियों का रूख जिस तरह से देख रहा था उसके अनुसार वे मेरा ट्रांसफर किसी अन्य जेल में करने की सोच रहे थे। मैंने इस आशय की खबर घर में दे दी थी। इसी बात को ध्यान में रखकर एक दरखास्त भी चीफ सेक्रेटरी, होम सेक्रेटरी तथा कलेक्टर को दी थी कि अगर मेरा ट्रांसफर किया जाता है, तो उस शहर में किया जाए जहां मेडिकल कालेज की सुविधा हो, क्योंकि मेरे प्रोटेस्ट का ऑपरेशन रायपुर के डीके अस्पताल में डॉ. गुप्ता ने किया था और ऑपरेशन सफल नहीं रहा था। मेरी तकलीफ बनी ही हुई थी। मैंने यह बिल्कुल नहीं सोचा था कि मैं सिवनी जेल ले जाया जाऊंगा , पर मुझे यहीं भेज दिया गया, मालूम नहीं क्यों? लेकिन यहां के सिवील सर्जन और डॉक्टर मेरी ठीक से देख- भाल कर रहे हैं। सिवनी जेल का वातावरण भी जेल जैसा नहीं है. यहां स्वतंत्रता आंदोलन के वक्त बड़े-बड़े नेतागण रखे जाते थे। यहां नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी रखे गए थे। यह सब सोच कर मुझे गर्व होता है। जिस कमरे में मैं इस समय हूं वहां स्व. पं. रविशंकर शुक्ल भी रखे गये थे। इस जेल की बनावट भी अलग प्रकार की है जैसे यह कोई स्कूल या कोई पुराना बंगला हो। खिड़की दरवाजे भी अलग प्रकार के हैं। यहां सवनी तथा जबलपुर जिले के जनसंघ के कई सदस्य भी मेरे साथ हैं। दिन अच्छा गुजरता है। रायपुर में मेरे साथ डॉ. रमेश थे वे मेरे साथ आना चाहते थे पर नहीं आ सके इसका मुझे दु:ख है। रायपुर में उसने मेरी बड़ी सेवा की तथा मेरी तबियत का बहुत $खयाल रखा।
रायपुर जेल के साथियों का क्या हाल है अभी तक कुछ पता नहीं चल रहा है और न कोई पत्र ही आया है। मैंने पत्र लिखा है उसका भी कोई जवाब नहीं आया। वहां एक डिप्टी कलेक्टर द्वारा लाठी चार्ज की जांच का जरूर पता चला था। मेरा बयान हो गया था पर जिस प्रकार जांच की जा रही है वह तरीका बिल्कुल ही गलत है। हम लोगों ने जेल अधिकारियों की भ्रष्टाचार तथा उनके गलत कार्यों की शिकायत की थी, लेकिन वे जांच किसी और ही बात की कर रहे हैं। रायपुर जेल में हुए लाठी चार्ज में लगभग 70 लोगों को चोटे आईं थीं तथा लगभग 30 के हाथ पैर टूटे थे। मीसा बंदी जिन बैरकों में कैद थे उन्हें खुलवाकर बुरी तरह से पीटा गया था, उनके समानों को रौंदा गया था, कई के समान छीन कर ले गये थे। एक जगह तो बिस्तर पर आग भी लगा दी गई थी। जिनका खाना रखा था उसे फेंक दिया गया था। वह शाम 6 बजे का समय था और किसी ने भी खाना नहीं खाया था। उस दिन जेल का जैसा माहौल था वह दिल दहला देने वाला था। जेल अधिकारी, जेल पुलिस तथा कुछ अन्य लोग लाठी लेकर मां बहन की गाली देते हुए लाठियां चला रहे थे यहां तक कि अस्पताल के अंदर, डॉक्टर के कमरे में भी लाठी से लोगों का सिर फोड़ा जा रहा था। ऐसा लगता था कि जेल अधिकारियों को शासन ने पूरी छूट दे दी है कि जाओ चाहे जो करो। जितने राजनैतिक मीसा बंदी वहां थे एम.एल.ए. या अन्य पद वाले सबको जेल अधिकारी सामने खड़े होकर पिटवा रहे थे। सुपरिटेनडेन्ट ने ए.डी.एम. को उसी वक्त बुलाकर अपनी सफाई दे दी कि यह झगड़ा सिर्फ मीसा बंदियों का आपसी झगड़ा है जेल के लोगों का इसमें कोई हाथ नहीं है। फिर भी मैंने कोशिश की कि ए.डी.एम. को साथ ले जाकर जिन्हें लाठियां पड़ी है उसे तथा जो अस्पताल (जेल के) में पड़े हैं उन्हें तथा सभी बैरकों में ले जाकर दिखाऊं कि देखो कैसा तहस-नहस किया गया है पर वे जल्द ही वहां से करीब 8 बजे चले गये। डॉक्टरों ने चोट खाए बंदियों की मलहम पट्टी की। डॉ. एस.डी. तिवारी रीडर मेडिकल कालेज भी आए और अपने साथ करीब 4- 5 गंभीर रूप से घायल मीसा बंदियों डी.के. अस्पताल ले गये। अन्य 30 को भी सुबह अस्पताल ले जाने का आर्डर दिया, पर दूसरे दिन किसी को भी अस्पताल नहीं भेजा गया। इस प्रकार उक्त सारी ज्यादती को सुपरिनटेंडेंट ने छिपाया। जांच में भी लीपा- पोती हो रही है। जांच में जानबूझ कर देर कर रहे हैं ताकि जांच का मतलब वह ही खत्म हो जाए।
सिवनी जेल, 28-1-1976
आज समाचार पत्रों में राज माता विजयाराजे सिंधिया का समाचार जनसंघ से संबंध विच्छेद तथा अपने पदों से त्यागपत्र व दो माह का पेरोल का समाचार पार्टी के लिए बहुत बड़ी घटना है पर मेरे व्यक्तिगत के लिए तो उन पर जो मेरी आस्था थी वह बिल्कुल ही खत्म सी हो गई। मैं उन्हीं की प्रेरणा व आदेश से जनसंघ में आया था तथा उन्हें एक वीर तेजस्वी महिला मानता था। पर अभी मैं इन दैनिक समाचारों पर पूर्ण विश्वास नहीं कर रहा हूं क्योंकि कई बार कई लोगों के बारे में गलत समाचार भ्रम फैलाने के लिए दिये जा रहे हैं। 'यह राज माता वाला समाचार' भी वैसा ही गलत साबित होगा ऐसी आशा करता हूं। मेरे दिल में अभी भी ऐसा विश्वास है कि जो नीति इंदिरा गांधी की है वह ज्यादा दिन देश के हित में नहीं रहेगा और उसे बदलना पड़ेगा । आम जनता के लिए शीघ्र ही अच्छे दिन आएंगे और बेईमानी, रिश्वतखोरी, तानाशाही की राजनीति खत्म होकर प्रजातंत्र की जीत होगी।
सिवनी जेल, 29-1-1976
मुझे आज इलाज के लिए अस्पताल जाना था पर सिविल सर्जन ने कल के लिए कह दिया। आज छिंदवाड़ा कोलयरी में काम करने वाले कुछ लोग आये। वे मुझसे मिले, उन्होंने इंदिराजी के 20 सूत्रीय कार्यक्रम एवं कोयला खदान में काम कर रहे लोगों के ऊपर हो रहे अत्याचार की जानकारी दी। मुझे ऐसा लगा कि अब इंदिरा गांधी उसी रास्ते पर चल रहीं हंै। साम्यवादी प्रजातंत्र, राष्ट्र कल्याण, गरीब जनता के उत्थान व पूंजीवादी तत्वों को खत्म करने के नाम पर खुद तानाशाह बन जाते हैं, तथा लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता नष्टï कर उन्हें गुलाम बना लेते हैं। साम्यवाद में हमेशा यह कहा जाता है कि 'सामान्य जनता के हाथ में राज्य की बागडोर आए तथा उनका जीवन स्तर ऊंचा हो' पर होता इसके उलटा ही है, बल्कि आम लोगों की स्वतंत्रता कम होती जाती है।
समाजवाद के नाम पर साम्यवादी एकाधिकारवादी दर्शनशक्ति का केन्द्रीकरण एक छोटे से गुट के शासन को जन्म देता है अत: मनुष्यों को व्यवहारिक और यथार्थ आदर्शों की सिद्धि के लिए संगठित होकर काल्पनिक आदर्शों को दूर करने के लिए लडऩा चाहिए। जेल के बाहर मेरे बहुत से साथी तथा समकालीन लोग सत्ता की प्रशंसा में लगे हुए हैं। मैं यह जानता हूं कि वे शिक्षित तथा बुद्धिमान हैं, पर यह सब भय, भौतिक आश्रय, चापलूसी तथा सत्ता की अंधपूजा है। मुझे लगता है कि सत्ता की अंधपूजा के और गहरे कारण हंै। दरअसल मानवीय समुदाय बिना सत्ता के जिंदा रह ही नहीं सकता, ऐसे लोगों की संख्या अधिक दिख रही है। सत्ता हमेशा रही है, पुराने जमाने से रही है पर उस सत्ता को, उस मानवता को बचाने के लिए हमेशा एक आध्यात्मिक सत्ता उसके समानांतर चलते रही है, जो शासन को उसकी शक्ति का दुरूपयोग करने से बचाती रही है। इस समय मेरे साथ जो जेल में हैं जेल जीवन से ऊब गए हैं, क्योंकि घटना विहीन जीवन लोगों को अपंग बना देती है वे जल्दी परिवर्तन चाहते हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि व्यक्ति अपने भीतर किसी विशेष तत्व का बिना नियंत्रण बनाये अच्छा आदमी नहीं हो सकता। इस 'स्वÓ पर काबू बहुत ही मुश्किल है और खासतौर से आज के युग में युवाओं द्वारा। इसी से हम कहते हैं कि हमें सिर्फ भौतिक कामभावों से कुछ ऊपर उठकर आध्यात्म की ओर जाना होगा। तभी हमें बल मिलेगा और तभी हम इस अत्याचार का मुकाबला कर सकेंगे। बुनियादी बात है कि राजनैतिक सत्याग्रही वास्तव में अपराधी नहीं हैं, वे शासन के विचार तथा कार्यक्रम के विरोधी हंै। यह समझना जरूरी है कि किसी भी व्यवस्था में विचार पूर्णतया हितकारी नहीं होता तथा उसे अधिक शक्ति प्रदान नहीं करना चाहिए।
सिवनी जेल, 1-2-1976
सिवनी जेल में आने के बाद मुझे एक अलग से कमरा रहने के लिए मिल गया। मैं यहां ता. 22-1-1976 की सुबह 8 बजे लाया गया। मुझे रायपुर जेल से 21-1-1976 को दोपहर 12 बजे बाहर निकाला गया और फिर रेल्वे स्टेशन से 3 बजे सिवनी के लिए रवाना हुआ। पुलिस ने तथा जेल अधिकारियों ने मुझे रायपुर जेल से बिना समान लिए तथा बिना दवाई व खाना खिलाए तत्काल स्टेशन भेज दिया। मैं रात को सिवनी 12 बजे पहुंचा तथा एक होटल में रहा, फिर वहां से हाथ मुंह धोकर एक कप चाय पीकर सिवनी जेल में दाखिल हुआ तब कहीं जाकर दोपहर 12 बजे दिन में भोजन मिला। मालूम नहीं क्यों सरकार ने मेरे साथ इतनी ज्यादती की। कांग्रेस, जनसंघ पार्टी से कुछ ज्यादा ही चिढ़ी है तथा प्रान्त का अध्यक्ष होने के नाते यदि वे मेरे साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हैं तो इसमें कोई ताज्जुब नहीं।
सिवनी जेल, 1-2-1976
आज मैंने एक लेख 'लेखकीय प्रासंगिकता का प्रश्न' लेखक राजेन्द्र यादव, का पढ़ा इसमें जो तर्क दिये हैं वे विचारणीय हंै पर अधिकांश तर्क बेतुके तथा असंगत हैं। इस लेख को पढ़कर ऐसा लगा जैसे हमारे देश का इतिहास, हमारे पुरातन साहित्य तथा महाकाव्यों को ध्यान में रखे बगैर ही लिख दिया गया है।
यह बात सच है कि तीन महान विचारकों- चाल्र्स डार्विन, कालमाक्र्स तथा सिगमंड फ्रायड ने सदियों से चले आ रहे हमारे परंपरागत विचारों के बिल्कुल विपरीत विचार प्रस्तुत किए हैं जैसे-
(1) डार्विन ने कहा है कि मनुष्य का जन्म व विकास साधारण जीव जंतु से धीरे-धीरे रूप बदलते हुए हुआ है तथा हम बंदरों की ही औलाद हैं। और हम जो यह कहते हैं कि हम महान पुरूषों, देवी देवताओं की संतान हैं तथा हमारे पुरखे प्रचंड शक्तियों के स्वामी तथा प्रतिभाशाली थे उन्होंने इसे अंधविश्वास तथा काल्पनिक कहा है।
(2) माक्र्स ने कहा है कि हम खुद अपनी परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार हैं तथा उन परिस्थितियों के साथ अपने प्रारब्ध को खुद बदल सकते हैं। सांसरिकता, अमीरी- गरीबी तथा सुख-दुख के लिए विधाता या भाग्य जिम्मेदार नहीं है। ईश्वर कोई चीज नहीं है। न मनुष्य- मनुष्य में किसी प्रकार का भेद है और न उनमें अलग-अलग प्रतिभा ह,ै जो एक को छोटा और दूसरे को बड़ा बनाता है।
(3) फ्रायड ने कहा है कि हमारे भीतर अथाह नरक है जो अचेतन में दमित है, जहां कुंठित वासनाओं के जहरीले सांप फुंकार रहे हैं। अपने भीतर कोई ईश्वर नहीं, यौन भावना ही भरी है- हां उसके उदारीकरण की संभावना है। पर यह कहना कि हमारे भीतर भगवान है, हमारी आत्मा परमात्मा का ही अंश है और अपने अंदर के ब्रम्ह- साक्षात्कार द्वारा ही हम ईश्वरीय शक्तियों से जुड़ते हैं, सिद्धियों को प्राप्त करते हैं, सब गलत व झूठ है।
इन तीनों विचारकों ने मनुष्य को सब तरफ से ईश्वरीय और अदृश्य शक्तियों से काट कर अपने और अपनी परिस्थितियों के प्रति खुद विचार करने में लगा दिया है तथा इन स्थितियों की सारी जिम्मेदारी अपने पर डाल दी है। जबकि मैं हमारे जीवन में वेद उपनिषद लिखने वाले ऋषि मुनि, वाल्मीकि, वेदव्यास, महाकवि कालीदास, दार्शनिक अरविंद, गांधी, टैगोर, रोम्योरोला, रूस के मैक्सिम गोर्की आदि के लेखों को प्रेरणा स्रोत मानता हूं। पर उपरोक्त तीन विचारकों का जो यह कहना कि पुराना साहित्य, इतिहास तथा महाकाव्य कुछ भी क्रांतिकारी परिवर्तन की भावना दे नहीं सकता, इसने देश को या समाज को कोई नई दिशा नहीं दी है, मेरी दृष्टि में ठीक नहीं है। इन तीनों ने सिर्फ आधुनिक विचारों को लेकर उसका विवेचन किया है।
राजेन्द्र यादव के लेखन से ऐसा लगता है जो साहित्य कालीदास, वाल्मीकि, व्यास याज्ञवल्क तथा वेद पुराण, गीता आदि में लिखा गया है वह सब मनुष्य के मनोरंजन के ही लिये था। उससे समाज को, देश को कोई दिशा या मार्ग नहीं मिला है। तुलसी, सूर, नानक, कबीरदास तथा हमारे बाद के साहित्यकार जैसे प्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त, शरदचंद्र आदि ने भी लोगों के मनोरंजन हेतु तथा भाटगिरी हेतु ही सारा साहित्य लिखा न कि समाज को कोई नई दिशा देने। लेखक ने तो यहां तक कह दिया कि हमारे देश भक्त जैसे महाराणा प्रताप, शिवाजी, झांसी की रानी तथा उससे भी पहले के लोग जिनमें चंद्रगुप्त आदि शामिल हैं- जिनने विदेशी आक्रमण को रोककर देश की रक्षा की, सम्राट अशोक सरीखे देश के निर्माता तथा ज्ञान प्रचारक को भी उनने यह कह दिया कि इन सबने भी अपनी बड़ाई या शौर्य के लिए कार्य किया न कि देश हित या समाज कल्याण के लिए। आधुनिक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, भगत सिंह, आजाद, राजगुरु आदि जिन्हें फांसी मिली तथा देशभक्त- तिलक, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस आदि की भी यह कहते हुए भत्र्सना की है, कि इनने भी देश को कोई नई दिशा नहीं दी। उन्होंने भी जो किया अपनी ख्याति के लिए, अपनी वाहवाही के लिए किया। मेरे विचार में ऐसे लेख देश व समाज के लिए हानिकारक होते हैं।
सिवनी जेल, 2-2-1976
नोबेल पुरस्कार विजेता 'आंद्रेई सखारोव' जिसे रूस ने इस पुरस्कार को लेने ओस्लो जाने के लिए अनुमति नहीं दी थी तथा जिनको रूसी, परमाणु बम का जनक कहते हैं। उस महान व्यक्ति के कुछ विचार बहुत ही सराहनीय तथा विचारणीय हैं जिसे मैं यहां उद्घृत करना चाहूंगा- दुनिया में आगामी पचास वर्षों में मुख्य रूप से तीन समस्या आने वाली हैं- जनसंख्या वृद्धि (50 साल बाद हम 7 अरब हो जायेंगे) पेट्रोलियम की कमी, जमीन की उर्वरता में कभी, शुद्ध जल की कमी तथा प्राकृतिक साधनों का क्षय तथा तीसरी परिस्थिति संतुलन एवं मनुष्य के परिवेश का गंभीर विघटन।
भविष्य में सबसे ज्यादा खतरा नाभकीय युद्ध से है जिससे पूरी सभ्यता और मानव जाति का नाश हो जाएगा। जब तक शत्रुतापूर्ण एवं शक्की सरकारें और उनके गुट मौजूद हैं, यह भयानक खतरा समकालीन जीवन का सबसे क्रूर यथार्थ बना रहेगा। मानव समाज को व्यक्तियों और सरकारों की नैतिकता के ह्रïास से भी खतरा है। बुनियादी आदर्शों का विघटन, न्याय और कानून का स्वार्थपूर्ण उपयोग, अपराधों में वृद्धि, राष्ट्रवादी एवं राजनैतिक आतंकवाद की नई अंतरराष्ट्रीय ध्वंसलीला और नशाखोरी का विनाशकारी प्रसार बिल्कुल प्रगट दिख रहा है। इन सबके कारण अलग-अलग देशों में अलग-अलग हैं। विश्व के विभिन्न देशों के विकास में बहुत ज्यादा अंतर बढ़ रहा है और सरकारें परस्पर विरोधी गुटों व टोलियों में कटती-बढ़ती जा रही हैं। कोई भी ऐसी शक्ति अभी नहीं है जो कि इन उपर लिखे विनाशकारी प्रवृत्तियों का विरोध करे, उसे रोके। मैं समझता हूं कि दुनिया में परस्पर विरोधी देशों के समूहों में बट जाने की रोकथाम आवश्यक है। समाजवादी और पूंजीवादी व्यवस्थाओं का मिलन जब होगा, उनके साथ विसैन्यीकरण, अंतरराष्टï्रीय विश्वास की पुष्टि होगी तब मानवीय अधिकारों व कानून के स्वंतत्रता की रक्षा भी होगी। इसके बाद ही सामाजिक नैतिक, अध्यात्मिक और वैयक्तिक स्रोत मजबूत होंगे।
आंद्रेई सखारोव विश्व सरकार की भी कल्पना करते हैं जो बहुत ही लचीला हो, जो स्वतंत्र सामाजिक गतिशीलता तथा सार्वभौम मानव के मौलिक अधिकारों पर आधारित सिद्धांतों वाली हो। पर जैसा राष्ट्र संघ हैं वैसा कमजोर संगठन नहीं चाहिए. अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं, रेडक्रास सोसायटी के समान हों जिससे विश्वस्तर पर स्वतंत्रता पूर्वक सभी का आना-जाना हो तथा समाधान प्रजातांत्रिक ढंग से हो।
इसके बाद उन्होंने विश्व की सारी भूमि को दो मुख्य भागों में विभाजित करने की कल्पना की है- एक तो जहां खेती हो तथा दूसरी जहां मनुष्य रहे अर्थात शहर, ग्राम व कल-कारखाने हों। इसका अनुपात उनके विचार से 20 प्रतिशत में लोग अपनी आबादी बसाएं बाकी 80 प्रतिशत भूमि का उपयोग जंगल, पशुपालन आदि कार्य में हो। मनुष्य के उपयोग में आने वाले कई पदार्थ कृत्रिम रूप से बनाये जा सकते हैं जैसे बर्फ के स्थानों पर रहने का स्थान, वहां खेती के लिए स्थान। विद्युत तथा अणु शक्ति का उपयोग ज्यादा से ज्यादा करके यह सब हो सकता है।
पर इस प्रगति में पहला कार्य भुखमरी को खत्म करना होना चाहिए। भौतिक पक्ष को ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए यह कुछ सीमा तक ठीक है पर उसके बाद अगर हमें मानव को मानव बने रहने देना है तो आध्यात्मिक पक्ष पर ही ज्यादा ध्यान देना होगा।
फिर वे कहते हैं कि- कि मानव की मानवता एवं प्रकृति को गंवाएं बिना प्रगति के भव्य, आवश्यक एवं अनिवार्य लक्ष्यों की पूर्ति कैसे संभव है? इस जटिल समस्या का तर्कसंगत समाधान मानव जाति अवश्य प्राप्त करेगी। क्योंकि मैं मानता हूं कि मानव में जो कुछ भी मानवीय है वह बचाया जा सकता है। जब जानकार हाथों और जानकार विभागों से काम करने का आनंद, परस्पर सहायता तथा मनुष्य एवं प्रकृति के साथ अच्छे संबंध और ज्ञान, कला का आनंद स्थापित होगा जो कि इन लक्ष्यों का कुछ मात्रा में परस्पर विरोधी है, फिर भी अजेय नहीं है।
दार्शनिक कहते हैं कि- ईश्वर की व्याख्या नहीं की जा सकती है, उसकी अनुभूति की जा सकती है- वह भी स्वेच्छापूर्वक कष्टï सहने और प्रेम की अभिव्यक्ति द्वारा।
दूसरी ओर वे यह भी कहते हैं कि मानव जाति के सामने सबसे बड़ी चुनौती न लोकतंत्र है और न समाजवाद वह आध्यात्मिक है। अत: इसका सामना हमें आध्यात्मिक स्वर पर ही करना चाहिए, वह तभी हो सकता है जब दो विरोधी वर्ग व खेमे एक दूसरे के नजदीक आकर समग्र मानव समाज के निर्माण में लग जाएं न कि एक दूसरे के लिए खाई खोदें।
पश्चिमी संस्कृति तथा पूर्वीय संस्कृति में बुनियादी अंतर सिवनी जेल, 4-2-1976
पश्चिम संस्कृति का मूल आधार भौतिक है और भारतीय संस्कृति का मूल आधार आध्यात्मिक है। जितने भी प्राकृतिक साधन व प्रकृति के रूप हमारे उपयोग में आते हैं उन्हें हम ईश्वरीय देन, ईश्वर की कृपा कहते हैं तथा अपनी भूमि को हम सबसे ज्यादा प्यार करते हैं, मानते हैं कि वायु, जल, नभ, पहाड़, अग्नि यहां तक कि जमीन में उगने वाली वस्तुओं जैसे पेड़, फल, फूल आदि सभी हमारे देवता स्वरूप हैं उन्हीं की कृपा से हम जीवित हैं तथा उन्हीं से हमारा कल्याण है। इसके विपरीत पश्चिमी संस्कृति औद्योगिक क्रांति पर ज्यादा आधारित है। वे आर्थिक संपदा को सब कुछ समझ कर, प्राकृतिक साधनों को सिर्फ अपने उपयोग की वस्तु मान कर आर्थिक फायदा उठा लेने के सिवाय और कुछ नहीं मानते। ईसाई धर्म बाइबिल (जेनेसिस 128)में भी ऐसा ही कुछ कहा गया है कि-'ईश्वर ने हमें आशीर्वाद दिया है कि फूलो- फलो और अपनी संख्या बढ़ाओ, और धरती को बसाओ तथा उसे पदाक्रांत करो, सागर की मछलियों पर स्वामित्व करो, हवा पर, चिडिय़ों पर, धरती पर चलने फिरने वाली प्रत्येक जीवित वस्तु पर' बाइबिल के अनुसार सृष्टिï का निर्माण ईश्वर ने किया है, सृष्टि उसकी है और वह इसका जो चाहे सो उपयोग करे उसमें आदम और हौवा को मनमाना ढंग से इस्तेमाल करने की छूट दे दी है। यही कारण है जहां-जहां ईसाई धर्म को माना गया है या उस संस्कृति को अपनाया गया है वहां भौतिकवाद ही सब कुछ है और एक ईश्वरवाद को मानकर प्रकृति को ताक में रख दिया है। यूनान, रोम आदि ने जब ईसाई धर्म को अपनाया प्रकृति की पूजा भूल गये उसी तरह मुसलमान व यहूदी भी भूल गए। जबकि पहले सभी जीव- जंतु, सभी प्राकृतिक वस्तु जैसे धरती, वायु, जल को अपना देवता मानते थे। लेकिन पश्चिम का मनुष्य प्रकृति से बिल्कुल ही कट गया है, विज्ञान तथा टेक्नालॉजी की मदद से उसे अपने आधीन कर उन्होंने अपने को संकट में डाल दिया है। मनुष्य को पुन: प्रकृति के साथ जुडऩा होगा क्योंकि वह प्रकृति का अभिन्न अंग है। इसके लिए उसे विज्ञान का नहीं समाधि और ध्यान का सहारा लेना होगा अर्थात धर्म और दर्शन का।
धर्म का मार्ग हिन्दू आस्था ने प्रस्तुत किया है जिसके अनुसार मनुष्य अपनी आंख के भीतर झांककर आत्मा की गहराई में प्रवेश कर सकता है तथा सत्य का दर्शन करता है। आधुनिक मनुष्य को इस दर्शन की जरूरत है तभी कल्याण है।

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